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दिल्ली के जमुना पुल के पास आज भी वो बड़ का पेड़ मौजूद है जहाँ 1400 मुसलमानों को फाँसी दी गई थी। रुड़की के पास सुनहरा गाँव में पेड़ है जहाँ 250 मुसलमानों को फाँसी दी गई थी।

10 मई 1857, जंग आज़ादी की भुला दी गई हकीकत

जब पड़ा वक्त गुलिस्तां पर तो खून हमनें दिया
अब बहार आई तो कहते है तेरा कोई काम नहीं

1856 से भी पहले ही मुसलमान अंग्रेज़ों की हुकूमत के ख़िलाफ़ कुर्बानियाँ दे रहे थे।

1756 में नवाब सिराजुद्दौला ने प्लासी की लड़ाई में अंग्रेज़ों से मुकाबला किया, लेकिन अपनों की गद्दारी से हार गए।

1763 में बक्सर की जंग में नवाब मीर क़ासिम, नवाब शुजाउद्दौला और नवाब शाह आलम ने अंग्रेज़ों से टक्कर ली।

1799 में मैसूर के शेर फ़तेह अली टीपू ने अंग्रेज़ों से चौथी और आख़िरी लड़ाई श्रीरंगपट्टनम में लड़ी।

1781 से 1840 तक मौलाना शरियतुल्ला बंगाली, उनके बेटे दूदू मियां और तीतू मीर ने बंगाल में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाइयाँ लड़ीं और बड़ी कुर्बानियाँ दीं।

1831 में बलाकोट में मौलाना सैयद अहमद शहीद और मौलाना शाह इस्माईल शहीद, हज़ारों मुसलमानों के साथ शहीद हो गए।

10 मई 1857: क्रांति की चिंगारी
मेरठ की देसी रेजीमेंट के एक अफसर शहीद वली ख़ान ने सुअर की चर्बी लगे कारतूस के विरोध में एक अंग्रेज़ अफसर को गोली मार दी, जिससे बग़ावत की चिंगारी फूटी।
वली ख़ान को 17 मई को शहीद कर दिया गया। ब्रिटिश रिकॉर्ड में उन्हें “ग़दर का जनक” कहा गया है।
उस बगावत की शुरुआत करने वाले 83 सिपाहियों में से 49 मुसलमान थे।
मेरठ से दिल्ली की ओर चलकर सिपाहियों ने 9 घंटे में दिल्ली पहुँचकर बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेता घोषित किया और दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया।

शुरुआत में मिर्ज़ा मुग़ल को सेना का सरदार बनाया गया, बाद में जनरल बख़्त ख़ान को सेनापति नियुक्त किया गया। नेहरू तक ने उन्हें “इस जंग का दिमाग़” कहा।

मेरठ से दिल्ली मार्च करने वाले कुछ सिपाहियों के नाम:
पिर अली, क़ुदरत अली, शेख़ हसनुद्दीन, शेख़ नूरुद्दीन, नूर मोहम्मद, जहानगीर, मीर क़ासिम अली, नूर अली, मीर हसन बख़्श सादात ख़ां वगैरह।

उलेमा किराम
अल्लामा फज़ल हक़ खैराबादी ने सैकड़ों उलेमाओं की ताईद से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ फतवा दिया और अदालत में उसका इकरार भी किया। उन्हें कालेपानी की सज़ा मिली, जहाँ उनसे सिर पर गंदगी उठवाई जाती थी। वहीं उनका इंतक़ाल हुआ।
उनकी नमाज़े जनाज़ा में 3,500 से ज़्यादा क़ैदी शामिल हुए, जो बताता है कि उस समय कालेपानी में हज़ारों मुसलमान बंद थे।

अंग्रेज़ों का ज़ुल्म
पंजाब और सरहद में मुसलमान सिपाहियों को तोप से बाँधकर उड़ाया गया।
दरख़्तों पर इस तरह फाँसी दी जाती थी कि आदमी देर तक तड़पता रहे।
एक बुज़ुर्ग मुसलमान ख़ातून जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ तक़रीरें करती थीं, एक दिन ख़ुद बंदूक़ लेकर अंग्रेज़ों पर हमला कर बैठीं और 15 को मार गिराया। घायल होकर गिरफ़्तार हुईं।
14 सितंबर, हज़ारों मुसलमान दिल्ली की जामा मस्जिद में नमाज़ के लिए जमा हुए। अंग्रेज़ों ने मस्जिद को घेर लिया। मुसलमान तलवार लेकर लड़े, शहीद हो गए लेकिन भागे नहीं।

बेगम हज़रत महल
उन्होंने अपने बेटे बिरजिस क़द्र को नवाब बनाकर अवध के नवाबों और ज़मींदारों को ख़त भेजे और उन्हें बग़ावत के लिए तैयार किया।
उन्होंने लखनऊ, बरेली, शाहजहाँपुर और तराई में जंगें लड़ीं। लेकिन जंग बहादुर की गद्दारी से उन्हें काठमांडू जाना पड़ा और वहीं इंतक़ाल हुआ।

मौलवी अहमदुल्ला साहब शहीद फैज़ाबादी
वो मद्रास से थे लेकिन फैज़ाबाद में रहते थे। बड़े ज़मींदार थे। अंग्रेज़ों ने उनकी सारी ज़मीनें ज़ब्त कर लीं और फाँसी की सज़ा दी। लोगों ने बग़ावत कर के उन्हें जेल से छुड़ा लिया। बाद में अंग्रेज़ों ने राजा पून के हाथों उन्हें शहीद करवाया।
अंग्रेज़ अफसर होम्स ने लिखा: “अगर उस वक़्त कोई हिंदुस्तान पर हुकूमत का हक़दार था, तो वही थे।”

मशहूर उलेमा और उनकी लीडरशिप
हज़रत हाजी इमदादुल्ला महाजिर मक्की, हाफ़िज़ ज़ामिन शहीद,
मौलाना क़ासिम नानौतवी, मौलाना रशीद अहमद गंगोही, मौलाना लियाक़त अली इलाहाबादी, मौलाना जाफर थानेसरी,मौलाना शफी़ अम्बालवी वगैरह—सभी मुसलमानों की और तमाम मुसलमानों की रहनुमाई कर रहे थे।

अंग्रेज़ों की दरिंदगी की झलकियाँ
2 लाख मुसलमान 15 दिनों में मार दिए गए।
दाढ़ी और लंबा कुर्ता “बाग़ी” की पहचान बना दी गई।
51 हज़ार उलेमा शहीद किए गए।
चाँदनी चौक से लेकर ख़ैबर तक कोई पेड़ ऐसा नहीं था जिस पर किसी उलेमा की लाश न लटकी हो।
बहादुर शाह ज़फ़र के चारों बेटों को अंग्रेज़ अफसर हडसन ने गोली मारी और ख़ून पिया।
जामा मस्जिद को अस्तबल बना दिया गया। हज़ारों औरतों ने कुओं में कूदकर अपनी इज़्ज़त बचाई।
3 लाख क़ुरान शरीफ़ जला दिए गए (1857–1861 के बीच) ताकि मुसलमानों में बग़ावत का जज़्बा ख़त्म किया जा सके।
जहाँ-जहाँ अंग्रेज़ जीते, उन बस्तियों को जला दिया। मर्द, औरतें, बच्चे—किसी को नहीं छोड़ा गया।

कुछ और दर्दनाक घटनाएँ
दिल्ली के जमुना पुल के पास आज भी वो बड़ का पेड़ मौजूद है जहाँ 1400 मुसलमानों को फाँसी दी गई थी।
रुड़की के पास सुनहरा गाँव में पेड़ है जहाँ 250 मुसलमानों को फाँसी दी गई थी।
नूह में 52 मेवातियों को, फिरोज़पुर में सैकड़ों लोगों को इमली के पेड़ पर फाँसी पर चढ़ाया गया।
मुरादाबाद के नवाब मज्जू ख़ान की लाश को हाथी के पाँव से बाँध कर पूरे शहर में घसीटा गया और फिर चूने के पानी में जलाया गया।

इंकलाब 1857 में उर्दू का योगदान
बग़ावत के दौरान उर्दू ज़बान में पत्र और घोषणाएँ लिखी जाती थीं ताकि देश भर में क्रांति फैले।
“दहली उर्दू अख़बार”, “सिराजुल अख़बार”, “तलिस्म”, “सादिक़ुल अख़बार”, “हबीबुल अख़बार” वगैरह इस काम में सक्रिय थे।
“दहली उर्दू अख़बार” के एडिटर पिर मोहम्मद बाक़िर को गोली मार दी गई।
बहादुर शाह ज़फ़र के नवासे मिर्ज़ा बेदार बख़्त ने “पयाम-ए-आज़ादी” नाम से अख़बार निकाला। अंग्रेज़ों ने उन्हें सुअर की चर्बी लगाकर शहीद किया। इसके संपादक अज़ीमुल्ला ख़ान को भी फाँसी दी गई।

इस इतिहास को बताने के दो मकसद हैं:
1.मुसलमानों को अपने बुज़ुर्गों की कुर्बानियों को याद रखना चाहिए, ताकि उनमें आत्मविश्वास बना रहे और उन्हें कोई शर्मिंदा न कर सके।
2.दुनिया को ये हकीकत बतानी चाहिए कि इंसानियत और लोकतंत्र के झूठे चैंपियन, 200 साल तक इंसानियत का खून बहाने वाले आज अमन और इंसाफ की बात करते हैं , उनके दामन पाक हैं और ज़ुल्म सहने वाले मुसलमान, दहशत गर्द वही हैं!!

स्रोत:
1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी – मियाँ मोहम्मद शफ़ी
तहरीक-ए-आज़ादी: हिंदू और मुसलमान – मोहम्मद अहमद सिद्दीक़ी
तारीखी मंज़रनामा – अता-उर-रहमान वजदी
शब्बीर अहमद इर्फ़ान हबीब ,

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